पारसनाथ किला
"आइए, पारसनाथ किला में आध्यात्मिक उपचार और शांति का अनुभव करें"
पारसनाथ किला में आपका स्वागत है
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बिजनौर जिले में नगीना रेलवे स्टेशन से उत्तर-पूर्व की ओर ‘बढ़ापुर’ नामक एक कस्बा है। वहाँ से चार मील पूर्व की ओर कुछ प्राचीन अवशेष दिखाई पड़ते है। इन्हें ही ‘पारसनाथ का किला’ कहते हैं। इस स्थान का नामकरण तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ के नाम पर हुआ लगता है। इस किले के संबंध में अनेक जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। एक जनश्रुति के अनुसार पारस नामक किसी राजा ने यहाँ किला बनवाया था। उसने यहाँ कई जैनमंदिरों का भी निर्माण कराया था। इस समय यहाँ कोई मंदिर नहीं है, अपितु प्राचीन मंदिरों और किले के भग्नावशेष चारों ओर कई वर्गमील के क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं। इन अवशेषों का अब तक विधिवत् अध्ययन नहीं हुआ है। कुछ उत्खनन अवश्य हुआ है। समय-समय पर यहाँ जैन मूर्तियों या जैन मंदिरों से संबंधित अन्य सामग्री उपलब्ध होती रहती है। उपलब्ध सामग्री के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि प्राचीन काल में यह स्थान जैन का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ कई तीर्थंकरों के पृथक्-पृथक् मंदिर बने हुए थे। ‘पारसनाथ का मंदिर’ इन सबमें प्रमुख था। इसीलिए इस स्थान का नाम पारसनाथ पड़ गया।

"काशीवाले बाबा पारसनाथ भगवान की जय"

हम इसे काशीवाला भी कहते हैं
यह स्थान तथा इसके आसपास के नगर जैनधर्म के केन्द्र रहे हैं, इस बात के कुछ प्रमाण प्रकाश में आये हैं। यह स्थान नगीने के बिलकुल निकट है। नगीने में जैनमंदिर के पास का मुहल्ला ‘यतियों का मुहल्ला’ कहलाता है। यति जैन त्यागी वर्ग का ही एक भेद था। इस नाम से ही इस नगर के इस भाग में जैन यतियों के प्रभाव का पता चलता है। नगीने से ८ मील की दूरी पर नहटौर नामक एक कस्बा है। सन् १९०५ में इस कस्बे के पास ताँबे का एक पिटारा निकला था जिसमें २४ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ थीं। सम्भवत: ये मुस्लिम आक्रमणकारियों के भय से जमीन में दबा दी गयी होंगी। ये मूर्तियाँ अब नहटौर के जैन मंदिर में हैं। नहटौर के पास गांगन नाम की एक नदी है। उसमें से १९५६-५७ में एक पाषाण फलक निकला था। उसके ऊपर पाँच तीर्थंकर-मूर्तियाँ हैं। यह जैनमंदिर भी नहटौर में स्थापित है।
मूर्तियाँ, स्तम्भ और प्राचीन अवशेष: पारसनाथ का किला की गणना
इन मूर्तियों के अतिरिक्त कुछ सिरदल-स्तम्भ आदि भी मिले हैं। एक सिरदल के मध्य में कमल-पुष्प और उनके ऊपर बैठे हुए दो सिंहों वाला सिंहासन दिखाई देता है। सिंहासन के ऊपर मध्य में पद्मासन मुद्रा में भगवान ध्यानलीन हैं। उनके दोनों ओर दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियों का अंकन किया गया है। फिर इन तीनों मूर्तियों के इधर-उधर भी इसी प्रकार की तीन-तीन मूर्तियाँ बनी हुई हैंं। इन तीनों भागों के इधर-उधर एक-एक खड्गासन मूर्ति अंकित है। कुछ द्वार-स्तम्भ भी मिले हैं। एक द्वार-स्तम्भ में मकरासीन गंगा और दूसरे स्तम्भ में कच्छपवाहिनी यमुुना का कलात्मक अंकन है। इन देवियों के अगल-बगल में उनकी परिचारिकाएँ हैं। ये सभी स्तनहार, मेखला आदि अलंकरण धारण किये हुए हैं। स्तम्भ के ऊपर की ओर पत्रावली का मनोरम अंकन है। स्तम्भों पर गंगा-यमुना का अंकन गुप्तकाल से मिलता है।
कुछ स्तम्भ ऐसे भी प्राप्त हुए हैंं, जिन पर दण्डधारी द्वारपाल बने हैं। देहली के भी कुछ भाग मिले हैं, जिन पर कल्पवृक्ष, मंगल कलश लिए हुए दो-दो देवता दोनों ओर बने हुए हैं। एक पाषाण फलक पर संगीत-सभा का दृश्य उत्कीर्ण है। इसमें अलंकरण के अतिरिक्त नृत्य करती हुई एक नर्तकी तथा मृदंग-मंजीरावादक पुरुष दिखाई पड़ते हैं। किले से कुछ अलंकृत र्इंटें भी मिली है। यहाँ के कुछ अवशेष और मूर्तियाँ नगीना और बिजनौर के दिगम्बर जैन मंदिरों में पहुँच गयी हैं। शेष अवशेष यहीं एक खेत में पड़े हुए हैं। इन पुरातत्त्वावशेषों और अभिलिखित मूर्तियों से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि ९-१० वीं या उससे पूर्व की शताब्दियों में यह स्थान जैनधर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। यहाँ जो व्यापक विध्वंस दिखाई पड़ता है, उसके पीछे किसका हाथ रहा है, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यदि यहाँ खुदाई करायी जाए तो संभव है, यहाँ से अनेक प्राचीन कलाकृतियाँ मिल सके और यहाँ के इतिहास पर भी कुछ प्रकाश पड़ सके।
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